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बादल फटना या विकास की कीमत? पश्चिमी हिमालय की चेतावनी

                                                                                                                                                     पश्चिमी हिमालय आज एक अदृश्य किन्तु तीव्र संकट की गिरफ्त में है। यहाँ की वादियाँ, जो कभी शांति और प्राकृतिक संतुलन की प्रतीक थीं, अब बार-बार आने वाली बाढ़ों, भूस्खलनों और बादल फटने जैसी त्रासदियों से जूझ रही हैं। ये आपदाएँ अब केवल 'प्राकृतिक' नहीं रहीं — इनके पीछे जलवायु परिवर्तन, संवेदनशील भूगोल और मानव जनित हस्तक्षेप की एक गहरी और जटिल परस्पर क्रिया है। यह लेख इसी त्रिकोणीय संकट की परतों को उजागर करता है।                                                                       

जलवायु परिवर्तन: संकट की आधारशिला
वैश्विक तापमान में वृद्धि के प्रभाव हर भू-भाग पर समान नहीं होते। अनुसंधान बताते हैं कि हिमालयी क्षेत्र वैश्विक औसत से लगभग दोगुनी गति से गर्म हो रहा है। यह असमान ताप वृद्धि मानसूनी प्रवृत्तियों में गंभीर अस्थिरता ला रही है। वातावरण में बढ़ती आर्द्रता और गर्मी से बनी नमी-समृद्ध हवाएँ जब हिमालय की ऊँची ढलानों से टकराती हैं, तो तेजी से ऊपर उठकर संघनित होती हैं — यही प्रक्रिया बादल फटने की घटनाओं को जन्म देती है, जो अब अधिक सामान्य होती जा रही हैं।
इसके अतिरिक्त, वायुमंडलीय रासायनिक संरचना में भी परिवर्तन देखा गया है। एरोसोल और ब्लैक कार्बन, जो मुख्यतः वाहन उत्सर्जन, बायोमास दहन और डीज़ल उपभोग से उत्पन्न होते हैं, वर्षा-बूँदों के निर्माण को प्रभावित करते हैं। इससे वर्षा अधिक तीव्र और विनाशकारी बन जाती है। इस प्रकार, जलवायु संकट केवल तापमान की बात नहीं रह गई है — यह अब एक बहुआयामी चुनौती है।                                                                                                                                                                                                                         भूगोल की भूमिका: नाजुकता की नींव*
हिमालय विश्व की सबसे युवा पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है। इसकी भौगोलिक संरचना अब भी भूगर्भीय रूप से सक्रिय है, जहाँ प्लेट टकराव और भूकंपीय गतिविधियाँ आम हैं। खड़ी ढलानें, नाजुक चट्टानें, और तीव्र ऊँचाई भिन्नताएँ इसे पहले से ही एक अस्थिर क्षेत्र बनाती हैं। जब अत्यधिक वर्षा या बर्फबारी होती है, तो पानी या बर्फ की परतें कमजोर भू-संरचना पर दबाव डालती हैं, जिससे भूस्खलन की आशंका बढ़ जाती है। ऐसे क्षेत्रों में कोई भी अतिरिक्त दबाव — चाहे वह सड़क निर्माण हो या पहाड़ी कटाई — भूगोल की इस असंतुलन को आपदा में बदल सकता है।     
                                                                                                                    मानवीय प्रभाव: विकास बनाम विनाश
विकास की दौड़ में पश्चिमी हिमालय के पर्यावरणीय संतुलन की अक्सर अनदेखी की जाती है। बीते दो दशकों में बिना पर्यावरणीय समीक्षा के निर्माण, पर्यटन केंद्रित अधोसंरचना, जलविद्युत परियोजनाएँ और सड़क चौड़ीकरण ने इस क्षेत्र की पारिस्थितिक सहनशीलता को बुरी तरह प्रभावित किया है। वनों की कटाई ने वर्षा जल को अवशोषित करने की प्राकृतिक क्षमता को कम कर दिया है। कंक्रीट निर्माण और पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई ने ढलानों की स्थिरता को कमजोर किया है। ऊपरी हिमालय में रासायनिक खेती और कीटनाशकों का प्रयोग वहाँ की नाजुक घासभूमियों और जल स्रोतों को प्रदूषित कर रहा है। इन सबका परिणाम यह है कि वर्षा अब अधिक तीव्र प्रभाव उत्पन्न करती है — मिट्टी उसे सोखने में असमर्थ है, जल नालों में नहीं समाता, बल्कि तेज़ी से बहता हुआ बस्तियों और सड़कों को बहा ले जाता है।

विकास की दौड़ में पश्चिमी हिमालय के पर्यावरणीय संतुलन की अक्सर अनदेखी की जाती है। बीते दो दशकों में बिना पर्यावरणीय समीक्षा के निर्माण, पर्यटन केंद्रित अधोसंरचना, जलविद्युत परियोजनाएँ और सड़क चौड़ीकरण ने इस क्षेत्र की पारिस्थितिक सहनशीलता को बुरी तरह प्रभावित किया है। वनों की कटाई ने वर्षा जल को अवशोषित करने की प्राकृतिक क्षमता को कम कर दिया है। कंक्रीट निर्माण और पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई ने ढलानों की स्थिरता को कमजोर किया है। ऊपरी हिमालय में रासायनिक खेती और कीटनाशकों का प्रयोग वहाँ की नाजुक घासभूमियों और जल स्रोतों को प्रदूषित कर रहा है। इन सबका परिणाम यह है कि वर्षा अब अधिक तीव्र प्रभाव उत्पन्न करती है — मिट्टी उसे सोखने में असमर्थ है, जल नालों में नहीं समाता, बल्कि तेज़ी से बहता हुआ बस्तियों और सड़कों को बहा ले जाता है।                                                                                                                                                                    * त्रासदियों के उदाहरण: चेतावनी के संकेत*
केदारनाथ (2013): असमय मानसून, हिमस्खलन और बादल फटने की संयुक्त त्रासदी ने हजारों लोगों की जान ली। जोशीमठ धंसाव (2023): भूमिगत जल प्रवाह में अव्यवस्था और बुनियादी संरचना के दुष्प्रभाव का प्रत्यक्ष प्रमाण। उत्तरकाशी, कुल्लू, चंबा में लगातार भूस्खलन की घटनाएं अब मौसमी नहीं, संरचनात्मक हैं।                                                                                 

समाधान की दिशा में पहल
संकट को पूरी तरह टालना शायद संभव न हो, परंतु उसका प्रभाव कम करना हमारे हाथ में है। इसके लिए बहुआयामी और समन्वित दृष्टिकोण आवश्यक है:  नीति और नियोजन स्तर पर:
पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन को कठोर बनाना सीमित निर्माण वाले "इको-सेंसिटिव ज़ोन" घोषित करना जलविद्युत परियोजनाओं की संख्या व आकार पर नियंत्रण
स्थानीय स्तर पर:

पारंपरिक जल संचयन तकनीकों का पुनर्प्रयोग
वर्षा के जल को सोखने वाले क्षेत्र (permeable zones) का निर्माण
ग्रामीण समुदायों को आपदा प्रबंधन प्रशिक्षण
वैज्ञानिक अनुसंधान और चेतावनी प्रणाली:
रीयल-टाइम वर्षा एवं भूस्खलन चेतावनी सिस्टम
सैटेलाइट-आधारित भू-स्थिरता निगरानी       

निष्कर्ष
पश्चिमी हिमालय अब केवल प्राकृतिक सौंदर्य का प्रतीक नहीं, बल्कि एक पर्यावरणीय चेतावनी बन गया है। जब तक हम जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से नहीं लेंगे, नाजुक भौगोलिक संरचनाओं का सम्मान नहीं करेंगे, और अपने विकास मॉडल को पुनः परिभाषित नहीं करेंगे, तब तक ये त्रासदियां और घातक बनती जाएँगी। यह समय है कि हम विकास की दिशा बदलें — ऐसी दिशा में जो प्रकृति के साथ संघर्ष नहीं, सहयोग करती हो। पश्चिमी हिमालय में जलवायु परिवर्तन, भूगोल और मानवीय हस्तक्षेप का सम्मिलित प्रभाव एक गंभीर और जटिल संकट पैदा कर रहा है। आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता को कम करने के लिए बहुस्तरीय, समन्वित और सतत प्रयास आवश्यक हैं। विकास और संरक्षण के बीच संतुलन स्थापित करना ही इस संकट से निपटने का दीर्घकालिक उपाय होगा।


लेखक: 
राजन कुमार शर्मा 
आपदा प्रबंधन विशेषज्ञ 
उपायुक्त कार्यालय, ऊना हिमाचल प्रदेश।

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